आइना हों जो मुकाबिल तो संवर जाना भी,
किसी की झील सी आंखों में उतर जाना भी|
जिस्म की हद से किसी रोज़ गुज़र जाना भी,
खुशबुओं सा कभी हर सिम्त बिख़र जाना भी|
उसमें सहरा भी हैं ये जान सकोंगे कैसे,
तुमने कश्ती से समंदर को अगर जाना भी|
दिल की बस्ती की तरफ भी कभी हो लेते तुम,
तुमने तो छोड़ ही रक्खा है उधर जाना भी|
सिर्फ लब ही नहीं नज़रों की जबां भी पढिए,
उसके इकरार में शामिल है मुकर जाना भी|
हुई जंजीर थकन और सफ़र बाकी हैं,
यानी दुश्बार है चलना भी ठहर जाना भी||
No comments:
Post a Comment