14 April, 2011

तुम जो नहीं तो…


तुम जो नहीं… तो सुबह भी रात की रुसवाई सी लगती है…!
यूं तो लोग अपने बहुत हैं… , पर तुम बिन सब दुनिया पराई सी लगती है…!
 नदी का पर्वत से जुदा होकर सागर में मिलना… , भी अब तो बेवफाई सी लगती है…!
तुम जो नहीं… तो सुबह भी रात की रुसवाई सी लगती है…!
दूर फलक तक हम भी उड़ना चाहते थे…, अब तो उड़ती चिड़िया भी सतायी सी लगती है …!
बेवफा तुम नहीं , खफा मैं भी नहीं…, फिर क्यूं ये दूरी जुदाई सी लगती है…?
तुम जो नहीं… तो सुबह भी रात की रुसवाई सी लगती है…!
बस तुम्हारी याद साथ रहती है, हर वक्त, हर जगह…, अब तो भीड़ में भी मुझे तन्हाई सी लगती है…!
यूं तो कम नहीं हसीन चेहरे यहां भी, काफिर…, पर क्यूं हर चेहरे में तुम्हारी परछाई सी लगती है…?
तुम जो नहीं तो… सुबह भी रात की रुसवाई सी लगती है…!
जहां तुम्हारी एक झलक का इन्तजार करता था आशिक… ,
अब तो वो गलियां भी हरजाई सी लगती है…!
शायद तुमसे ही रोशन था मेरा जहां…, अब तो खिली हुई कली भी मुरझाई सी लगती है…!
तुम जो नहीं तो… सुबह भी रात की रुसवाई सी लगती है…!

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